अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

 

क्यों सखि साजन

१.

वह आए पग धरूं उछाल
देखो गाल हो गए लाल
आँगन, द्वारे बिछी रँगोली
क्या सखि साजन?
न सखी ' होली '

२.

उसके बोल लगें कुछ ऐसे
मुझे बुलाए कोई जैसे
मन हौले से जाता डोल
क्या सखि प्रेमी?
न सखी ' ढोल '

३.

जब भी वह होली में आए
पूरी महफ़िल पर छा जाए
दिखता बस मस्ती का रंग
क्या सखि साजन?
न सखी 'भंग'

४.

वह आए सर्दी कुम्हलाय
गरमी आने में सकुचाय
बजने लगे मुहब्बत की धुन
क्या सखि साजन?
न सखी 'फागुन'

५.

छूट गया है उससे नाता
पर अब भी वह मुझे लुभाता
कहना उससे कारे काग
क्या सखि प्रेमी?
न सखी ' फाग '

- प्रदीप शुक्ल
१ मार्च २०१८

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter