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आस्ट्रेलिया से कवि सम्मेलन  


 

 

पतझड़

मैं पतझड़ के पत्तों जैसा यों ही रोज बिख़रता हूँ
रोज अधूरे सपने लेकर सोता हूँ और जगता हूँ

आशा और अभिलाषा का
मंत्र अधूरा जपता हूँ
अंतरमन से जिज्ञासा का
पत्र अधूरा लिखता हूँ
कंठ मुक्त हो कर गाता हूँ कुछ मन में रख लेता हूँ
रोज अधूरे सपने लेकर सोता हूँ और जगता हूँ

बैठ रेत के टीले पर मैं
मन में मन को आश्रय देकर
पथ से कुछ काँटे चुन चुनकर
वैभव की गरिमा को लेकर
मैं गिरि की हिम जैसे यों ही जमता और पिघलता हूँ
रोज अधूरे सपने लेकर सोता हूँ और जगता हूँ

रोज जन्म लेकर मरता हूँ
बादल सा उड़ता फिरता हूँ
मैं मरुस्थल में बूँदे बन
जहाँ तहाँ गिरता फिरता हूँ
मैं बादल से बूँदे बनकर यों ही रोज बिखरता हूँ
रोज अधूरे सपने लेकर सोता हूँ और जगता हूँ

मैं चंदन से खुशबू लेकर
जा बैठा बबूल के ऊपर
बाँध पाँव में सुंदर नूपुर
रंभा उतरी नभ से भू पर
मैं रंभा के नूपुर जैसा बजता और बिखरता हूँ
रोज अधूरे सपने लेकर सोता हूँ और जगता हूँ।

— सुभाष शर्मा

मेरी पोर पोर
 
मेरी पोर पोर जब तेरी यादों में डूबी हो
और ऐसे में अचानक तू छम से आ जाए
तो मेरी खुशी उस बच्चे की तरह हो जाती है
जिसके बादाम से तोड़ते हुए
अचानक दो गुठलियाँ निकल आएँ

शब ने जब

शब ने जब हर सू अँधेरा कर दिया
तेरी यादों ने उजाला कर दिया
प्यार नख़लिस्तान था मेरे लिए
हासिदों ने मिल कर सहरां कर दिया
राहों में काँटे थे वो घबरा गए
रास्ते में हमको तनहा कर दिया
सच कहें तो मुँह से खूँ टपकता है
झूठ की दुनिया ने गूँगा कर दिया
प्यार जब तक दिल में था महफ़ूज था
आँख में उतरा तो रुसवा कर दिया

-रियाज शाह

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