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माँ! नारी दुर्गा बन जाए

 

 

 

माँ! नारी
दुर्गा बन जाए
एक यही अरदास हमारी

देख रही हो
गति ये कैसी
हुई तुम्हारे ही रूपों की
अबला कह टाँगें पेड़ों से
तनी हुई
मूछें भूपों की
अपने रक्त माँस से मिट्टी
में भी जो
भरती है जीवन
आज उसी का चीर हननकर
ध्वस्त कर रहे
उसका तन मन

शक्ति -रूपा
आज बने वो
फिर से जागे आस हमारी

दुखड़ा जन-जन
का सड़कों पर
भीगी आँखों से बैठा है
भरा हुआ है हृदय समय का
अच्छे वादों
से ऐंठा है
झूठ लिए
परचम फिरता है
सत्ता के गलियारों में अब
आँख प्रेम की ढूँढे सपने
खापों के
अँधियारों में अब

और नहीं कुछ
भी चाहें बस
हरी रहे मन घास हमारी

- गीता पंडित
१५ अक्तूबर २०१५

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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