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तू नवदुर्गा

 

 

 

हे माँ! तू नवदुर्गा, वह कली नौनिहाल
बुझ रही है ज्योति तेरी! जोताँवाली सम्भाल!

माँ! तू है सत्यरूपा
वो तेरी ही स्वरूपा
तू तो रही अनुपमा
वो तेरी ही है उपमा

पर डस रहा उसे क्यों, बन सर्प-दंश काल?
बुझ रही है ज्योति तेरी, जोताँ वाली सँभाल।

तू जल रही भभक के
वह रो रही फफक के
माँ है तो गोद ले ले
निज सुता को लपक के

न समेट अपना आँचल, हे माँ वरद! विशाल!
बुझ रही है ज्योति तेरी! जोताँवाली सम्भाल!

देती न कोई उत्तर
क्यों है भला निरुत्तर?
कैसी है तू हठीली?
माँ है या कोई प्रस्तर?

पूजा में तेरी अर्पण है, मेरा प्राण थाल!
बुझ रही है ज्योति तेरी! जोताँवाली सम्भाल!

नहीं मौन तोड़ती है
मुख भी न मोड़ती है
प्रश्नावली ये मेरी
क्या तुझे न झिंझोड़ती है?

क्यों भेदते न तुझको मेरे ये शर-सवाल
बुझ रही है ज्योति तेरी! जोताँवाली सम्भाल!

- गीतिका वेदिका
१५ अक्तूबर २०१५

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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