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माँ बसी हो तुम

 

 

 

माँ बसी हो, तुम हृदय के
साज की झंकार में
चेतना जागृत करो माँ
इस पतित संसार में।

आस्था का एक दीपक
द्वार तेरे रख दिया
ज्योति अंतर्मन जली
उल्लास, मन ने चख लिया

शक्ति का आव्हान करके
पा लिया ओंकार में
माँ बसी हो, तुम हृदय के
साज की, झंकार में

पाप फैला है जगत में
अंत पापी का करो
शौर्य का पर्याय हो, माँ
रूप काली का धरो

जन्म देती, जगत जननी
बीज को आकार में
माँ बसी हो, तुम हृदय के
साज की, झंकार में

छंद वैदिक, मंत्र गूँजे
भावना रंजित हुई
सजग होती आज नारी
जीत अभिव्यंजित हुई

माँ नहीं, तुमसा जहाँ में
नेह के उद्गार में
माँ बसी हो, तुम हृदय के
साज की, झंकार में।

- शशि पुरवार
१५ अक्तूबर २०१५

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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