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नव वर्ष की सुबह
 

वह दबे पाँव
दाखिल हो जायेगा
जैसे बेहोश बुधिया
बारह बजे लौटेगा घर
दिन भर की कमाई पीकर

उल्टी गिनती
रेंगती रहेगी
किसी साइकिल रिक्शे की
सीट के नीचे
घनी होती जायेगी धुंध
लम्हा दर लम्हा
साँसें बिखर जायेंगी
समय की रेत पर

भूल जायेंगे
उसे भी हम
सारे संकल्पों की तरह
जैसे बुधिया भूल जाता है
जाड़े में रिक्शा चलाते हुए
हड्डियों की कड़कड़ाहट
हर एक शाम

कोई एक तो कर्म हो
समय की अनंत धारा में
लजा कर भाग जाये जिससे
हमारे आसपास पसरी उदासी
नए वर्ष की सुबह के साथ.

-परमेश्वर फुंकवाल
 

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