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      उड़ी पतंगें

 
चादर सरसों की इधर, उधर पतंगें डोर
शीत ऋतु ने छू लिया, भू-नभ का हर छोर

नीली, पीली, लाल सब, उड़ी पतंगें-पाट
रंगों का मेला लगा, आसमान घर-घाट

कैसे लेती है निभा, सब संबंध पतंग
चरखी-हाथों डोर औ', उड़े हवा के संग

किसका माँझा कब यहाँ, काट गिराए अंग
सँभल-सँभल मिलना गले, कहती यही पतंग

कागज जैसी देह में, समझ अस्थियाँ बाँस
जीवन अगर पतंग तो, डोरी इसमें साँस

- परमजीत कौर 'रीत'
१ जनवरी २०२३

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