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     . पतंगों से दिन

 
खो गए हैं नभ में उड़ते
पतंगों से दिन

हाथों से छूटी अचानक
डोर कच्ची सी
कब बड़ी हो गई जाने
पीर बच्ची सी
भर रहे हैं मन में दहशत
लफंगो से दिन

आईनों से पूछते हैं
अतीतों के रूप
चुभ रही है छाँव में भी
चिलचिलाती धूप
चलो खोजें जंगलों में
कुरंगों से दिन

रिश्ते-नाते जैसे कोई
राह पथरीली
हो गए संबंध थोथे
हवा ज़हरीली
अपनेपन से भागते हैं
दबंगों से दिन

- जयप्रकाश श्रीवास्तव
१ जनवरी २०२३

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