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पर्व खुशियों के
 
पर्व खुशियों के मनाने का बहाना है
डोर उमंगो की बढाओ गीत गाना है

घुल रही है फिर हवा में गंध सौंधी सी
मौज मस्ती स्वाद का उत्सव मनाना है

तिल के लाडू, गजक-चिक्की, बाजरा, खिचड़ी
माँ के हाथों की रची खुशबु खजाना है

संग बच्चों के सभी बूढ़े मिले छत पर
उम्र पीछे छोड़कर बचपन बुलाना है।

देखना है जोर कितना आज बाजू में
लहकती नभ में पतंगें काट लाना है

संग चाचा के खड़ी चाची कहे हँसकर
पेंच हमसे भी लड़ाओ आजमाना है

गॉँव में सजने लगे संक्रांत के मेले
संस्कृति का हाट से रिश्ता पुराना है

उड़ रहीं नभ में पतंगे, धर्म ना देखें
फिर कहे शशि प्रेम का बंधन निभाना है

- शशि पुरवार
१५ जनवरी २०१७

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