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ये रंगीन पतंग
 
खुले गगन में, कैसे उड़ती
ये रंगीन पतंग!
जब सुविधा के, हिचके टूटे
और डोर है तंग!

उड़ी कभी, ऊँची मस्ती में
हँसते करते शोर
बीच सफर में औचक टूटी
अपनी कच्ची डोर
और पतंगें गिर तारों पे
सिर पटकें, कुछ रोयें
हाथ उठे के उठे रह गये
बुझती रही उमंग!

मीठे गुड से बोल खो गये
हो गये दाग़ी चिट्ठे
तिल की गजक चुरा कर ले गये
छँटे हुए तिलचट्टे
क्या अपने त्यौहार, क्या आँगन
क्या चौरे की तुलसी
सब अपनी पहचान बचाने
को करते हैं जंग!

सोचा शुद्ध करें तन मन को
पर गंगा है मैली
भजन पाठ को, तट के पंडे
माँगें मोटी थैली
अब तो चारों धाम ढूँढ तू
अपने घर में भइया
घर मंदिर में ही तो थोड़े
बचे हुए हैं रंग!

- कृष्ण भारतीय
१५ जनवरी २०१७

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