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बदल रहे इस मौसम में
 
अधखोले, आँखों को मलता सूरज आया
देखो, क्या उन आँखों में
संकल्प जगा है?

कुहा-कुहा आकाश दिखे
व्यवहार-जगत का
गहन निराशा हर बढ़ने
के साथ चढ़ी है
ठिठुर रहा व्यापार चलन-
में आया कैसे?
तिर्यक जाने की हर संभव
ललक बढ़ी है

ऐसे में विश्वास जगाता आया जो भी
औंधे अनगढ़ काल-खण्ड-
में वही सगा है।

हवा चपल है, पाले की
संगत में बहकी
उसके पग का अटपटपन
भी तो साल रहा
ऐसे में फिर तर्क भला
क्या समझा पाये?
फिर था जो कुछ बोना-बिनना
तत्काल रहा

सिकुड़ा-सा उत्साह कहाँ तो चुप बैठा था
बदल रहे इस मौसम में
चुपचाप लगा है।

- सौरभ पाण्डेय
१५ जनवरी २०१७

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