अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

तम दूर करो हिय से अपने

   



 


तम दूर करो हिय से अपने अरु ज्ञान प्रकाश हिये भर लो
प्रण लो मन में यह आज सखे सदभाव दिया कर में कर लो
छल दंभ कि नीतिहि छोड़ सखे तुम प्रेम पुनीत हिये धर लो
जल जाय सभी घर प्रेम दिया निजता सबकी प्रभु जी हर लो

घोर अमावस की ये निशा बन पूनम रात जहाँ चमके है
दीप जले घर बाहर भी अरु द्वार यहाँ सबके दमके है
रीति कुरीति करो न सखे यह दीप पुकार कहे तुमके है
मै मदिरा अरु लोलुपता धन सत्य सखे विष जी समके है

-चिदानंद शुक्ल
२८ अक्तूबर २०१३

   

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter