अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

मैं दिया हूँ

   



 

आज फिर होगा सबेरा मैं दिया हूँ
निगल जाऊँगा अँधेरा मैं दिया हूँ

जामिनी से जंग मैं जीता हमेशा
रोशनाई का चितेरा मैं दिया हूँ

सामने दीवार पर कालिख पुती है
नाम ये किसने उकेरा मैं दिया हूँ

सूर्य थककर बैठता है शाम को जब
ठेलता हूँ मैं अँधेरा, मैं दिया हूँ

घन तिमिर में सत्य जब जब दब गया था
झूठ को मैंने निबेरा, मैं दिया हूँ

है अगर तूफ़ान कोई तो बुझा दे
बाहुओं को अब तरेरा मैं दिया हूँ

तुम जला देना मुझे निश्चिंत होकर
छा रहा हो तम घनेरा मैं दिया हूँ

देखकर लौ टिमटिमाती डर गया गर
शौक है मेरा नचेरा मैं दिया हूँ

चल 'पवन' खामोश होकर रास्तों में
ढूँढते हैं वो सपेरा मैं दिया हूँ

- पवन प्रताप सिंह 'पवन'
२० अक्तूबर २०१४

   

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter