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दीपावली - पाँच छोटी कविताएँ

   



 

(१)
जला रही हूँ
एक दीप
आस्था और विश्वास का
तुम भी जलाओ
पर यह अकेले दीप की
लौ से संभव नहीं
इसको शाश्वत जलते रहने के लिये
एक और दीप चाहिए
जिसमें आस्था भी हो ,विश्वास भी
क्या है तुम्हारे पास
ऐसा एक दीप ?

तुम्हारे पास यदि
आस्था और विश्वास रूपी
यह दीप है,
तो आओ
मिलकर दीप चलाएँ

(२)

कम होते तेल से
आले में रखी
ढिबरी की भभकती
बाती को निहारता
वह सोच रहा है
क्यों न आज की दीवाली
सामने बंगले की
रौशनी को देखकर
बीता दूं
और माँ की
मेहनत से खरीदी
इस फुलझड़ी को
रख लूं
अगली दीवाली के लिये।

(३)
रोज रात में
पानी के सहारे
पेट भर कर
सोने वाला चतरु
चूल्हे की जलती आग
और उस पर चढ़ी
हंडिया को देखकर
पूछता है -
‘’माँ !
आज आग क्यों जला
रखी है ?’’
माँ का चेहरा जो
चूल्हे की आग से
दमक रहा था ,
कहती है-
‘’बेटा
आज दीवाली है न!”

(४)
लट्टुओं से सजी
बहुमंजिली इमारत
के सामने खड़ी
उसकी आँखें
अनारदाने की रौशनी से
चुँधिया जाती हैं,
उस रौशनी में
अपने फटे फ्राक को
सितारों से जड़ा पाती है
नया फ्राक पहनने की चाह
यूँ पूरी होते देख खुशी में
पास खड़ी माँ से चिपट जाती है
माँ
समझ नहीं पाती
कातर आँखों से
बेटी का फटा फ्राक
और आँसुओं से सुख चुका
पपड़ाया मुँह देख
अचकचा जाती है
चाँद से दमकते
उसके चेहरे को
झट आँचल में छुपा
अपनी झोपड़ी की ओर दौड़ पड़ती है।

(५)
जहाँ चकाचौंध से दूर
एक नन्हा दिया
टिमटिमा रहा है
बूझ चुके चूल्हे से
कोयले का एक टुकड़ा उठा
बेटी के गाल पर
डिठौना लगाते
कहती है-
मैं व्यर्थ ही रोती हूँ
मेरी दीवाली तो
तू ही है।

- रत्ना वर्मा
१५ अक्तूबर २०१६
   

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