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         जलती फूलझड़ी


परम्पराएँ शेष बचीं हैं, अब इकड़ी-दुकड़ी
तब भी दीपों संग झर-झर-झर,
जलती फूलझड़ी

त्यौहारों पर मँहगाई कुछ, लगती है भारी
मोल-भाव में दिखती गर्मी, उठती चिंगारी
फूलों की मालाएँ लगतीं, शूलों का जाला
एक सभी को फूलझड़ी ही,लगती प्रतिहारी

दरवाजों पर फूलों की जब
सिकुड़ी लड़ी-लड़ी

भाईचारे की राहों पर, नफ़रत पलती है
भाई-भाई को नजदीकी, इतनी खलती है
दिन-दिन बढती इस दूरी में, कौन बधाई दे
त्यौहारों की ख़ुशी हाथ ही, अपने मलती है

कैसे जोड़ें जब बिखरी है
टूटी कड़ी-कड़ी

सच्चाई से परे दिखावा, सबको भाता है
कर उधार उपहार नये, निर्धन लाता है
त्यौहारों का रूप नया ये, जैसे बीमारी
किश्तों में बाज़ार हुआ जो, वो भटकाता है

पछताते जो टिका न पाते,
पास कभी दमड़ी।

- अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’
१ अक्टूबर २०२२

       

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