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      फुलझड़ियों के मेले


मौसम ने फिर आज लगाए
एक बरस के बाद नए ही
फुलझड़ियों के मेले

लम्बी घिरी तिमिर की चादर
बुझा गई थी दीपक कितने
आँसू में घुल बहे कोर से
आँखों ने जो आँजे सपने
लेकिन अब उग नए सूर्य ने
किरणों की कैंची ले छँटी
लम्बी तम की दोशाला में
टंके हुए थे जितने फुँदने
अंधियारे को हरा उमंगें
अंगनाइ में काढ़ रही हैं
रांहोलि के रेले

बाज़ारों पर यौवन आय
फिर काया गदराई
ख़ुशियों से भरपूर उमंगें
छेड रही शाहनाई
कोलाहल से भरे माल में
कंदीलों की झालर
कृत्रिम सूरज के प्रकाश से
आँख असज चुंधियाई
वंशी बजे, चंग पर थापे
पंचम पर चढ़ सुर देता है
अब सरगम को हेले

हलवाई की सोइ भट्टी
नींद छोड़ कर धधकी
पकने लगा दूध का खोया
उतरे गर्म इमरती
बने बताशे, खांड खिलौने
भुंजी भाड़ पर खीलें
बूंदी के लड्डू के संग संग
बालूशाही, मठरी
मौज मनाएँ सबसे मिल कर
मुँह मीठा करके मुस्कानें
रहे न कोई अकेले

बाँछें खिली सराफ़ों की
कर धन धन हंसे ठठेरे
झन झमक कुमकुम चमकते
बाज़ारों को घेरे
आतिशबाजी उछली ऊपर
नभ हो रहा प्रकाशित
दीपों की लड़ियों से डरते
छुपते फिरे अंधेरे
दीवाली पर आज फुलझड़ी
चटर मटर के संग अनार से
हाथ मिला कर खेले

- राकेश खंडेलवाल

१ अक्टूबर २०२२

       

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