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सूरज खेले आँखमिचौनी
 
सूरज खेले
आँखमिचौनी

छिपे कभी बादल के पीछे
अगले ही पल सम्मुख आये
कभी कभी ये ओढ़ रजाई
कुहरे की दिन भर सो जाये

जाड़े में है मरहम लगती
धूप गुनगुनी

भोर समय नदिया की धारा
में लगता है लाल कमल सा
लहरों के झूले में झूले
ऊपर नीचे, कुछ डूबा सा

गर्मी में क्यों क्रोधित हो
बरसाए अग्नि

रात्रि, दिवस, ऋतुएँ हैं तुमसे,
तुमसे ही है यह जीवन
अपनी किरणों से कर दो तुम
आलोकित सबका तन-मन

नित्य भोर से शाम ढले तक
वही कहानी।

- अनुराग तिवारी
१२ जनवरी २०१५

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