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        धूप तुम्हारे नाम करूँ

 

कोहरा ओढ़े खड़ी हो कब से
ठिठुरी ठिठकी पड़ी हो जब से
मन कहता इक काम करूँ
कुछ धूप तुम्हारे नाम करूँ

अल्हड़ चंचल फिरें हवाएँ
जंगल पर्वत घात करें
तिरछे पैने पंख लगा कर
डाल- पात उत्पात करें
जी चाहे अब रोकूँ इनको
बाँधूं ,दूर दराज़ धरूँ
फिर धूप तुम्हारे नाम करूँ

माघ पोष कितने निर्मोही
बर्फ़ की चादर तान खड़े
थर थर काँपे नदिया पनघट
हाथ बाँध दिनमान खड़े

जेठ माह की गठरी खोलूँ
ढूँढूं, कुछ निदान करूँ
फिर धूप तुम्हारे नाम करूँ

किरन डोर का बुनूँ दोशाला
शाम ढले ओढाऊँगा
नेह प्रीती की आँच जला कर
द्वार तेरे धर जाऊँगा
अस्ताचल से रंग सिंदूरी
लाऊँ, तेरी माँग भरूँ
फिर धूप तुम्हारे नाम करूँ

- शशि पाधा
१ दिसंबर २०२०

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