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१४. ४. २००८ 

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पनघटों में धूल

गाँव अब
लगते नहीं हैं
गाँव से!
4
पनघटों में धूल
सूने खेत
घूमते अमराइयों में प्रेत,
आ रही लू, नीम वाली
छाँव से!

ठूँठ अपनापन झरे
मन-पात
कोयलों पर बाज की है घात,
धूप के हैं थरथराते
पाँव से!
4
खाँसते
आँगन, हवा में टीस
कब्र में डूबे घुने आशीष,
लोग हैं हारे हुए हर
दाँव से।

--हरीश निगम

 

इस सप्ताह

गीतों में-

गौरवग्रंथ में-

अंजुमन में-

छंदमुक्त में-

हँसिकाओं में-

पिछले सप्ताह
अप्रैल २००८ के अंक में

इस माह के कवि में-
कैलाश गौतम

अंजुमन में-
महावीर शर्मा

दिशांतर में-
डॉ. सुरेंद्र भूटानी

छंदमुक्त में-
मधुकर पांडेय

हास्य व्यंग्य में-
मोहन कीर्ति

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