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१३. १२. २०१०

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सुलग रही फूलों की घाटी

 

सुलग रही
फूलों की घाटी
प्यासी हिरनी
सम्मुख मृग जल
कंपित पग पथराया मन है
बहुत उदास आज दर्पण है।

नीलकंठ
के पंख नोच कर
मस्त बाज कर रहे किलोलें
सहमी सहमी-सी गौरैया
छुपी छुपी
शाखों पर डोलें
कोटर पर
नागों का पहरा
नींद दूर है, दूर सपन है।

पके खेत
खलिहान जोहते
बाट कहाँ वंशी की तानें
कहाँ खो गई अल्हड़ कल-कल
झरने सी
झरती मुस्काने
उभर रहे
कुंठा के अंकुश
ठहरा ठहरा सा जीवन है।

बरस रही
है आग रात दिन
सुलग  रही  फूलों की घाटी
उडे पखेरु नीड़ छोड़ कर
स्वप्न हुई
देहरी की माटी
बिछ़़ड गई
कोपल डाली से,
सूना सूना घर आँगन है।

-- मधु प्रधान

इस सप्ताह

गीतों में-

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मधु प्रधान

अंजुमन में-

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जितेन्द्र जौहर

छंदमुक्त में-

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डॉ. टी महादेव राव

छंद में-

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यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'

पुनर्पाठ में-

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सत्यनारायण सिंह

पिछले सप्ताह
६ दिसंबर २०१० के अंक में

गीतों में-

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जयकृष्ण राय तुषार

अंजुमन में-

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ओमप्रकाश यती

छंदमुक्त में-

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पुष्पा तिवारी

क्षणिकाओं में-

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हरकीरत हीर

पुनर्पाठ में-

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सरिता शर्मा

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
-|- सहयोग : दीपिका जोशी
     
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