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  ४. ७. २०११

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आज समझ आया है होना

 

आज समझ आया है होना

कितनी झंझा
कितने गर्जन
विचलित कर देते हैं
तन को
पर यौवन का रंग निखरता
छू सपनों में
श्यामल घन को
नित नूतन होता जाता है
धरती से आकाश सलोना
आज समझ आया है होना

बिखरी बिखरी सी
अलकों में
अनकहनी बातों का डेरा
अर्ध निमीलित
पलकें भारी
प्रत्याशा का रैन बसेरा
शंकाओं ने चुपके चुपके
घेर लिया है, मन का कोना
रह रहकर आता है रोना
आज समझ आया है होना

- सुरेश कुमार पंडा

इस सप्ताह

गीतों में-

अंजुमन में-

छंदमुक्त में-

दोहों में-

पुनर्पाठ में-

पिछले सप्ताह
२७ जून २०११ के अंक में

गीतों में-
ओम प्रभाकर

अंजुमन में-
प्रभु दयाल

छंदमुक्त में-
धर्मेन्द्र कुमार सिंह 'सज्जन'

हाइकु में-
अमिता कौंडल

पुनर्पाठ में-
धीरज गुप्ता तेज

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग : दीपिका जोशी

 
 
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