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अनुभूति में डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की रचनाएँ-

दोहों में-
नेता जी के पास हैं
फागुनी दोहे

हास्य व्यंग्य में-
खूब गुलछर्रे उडाते जाइये

 

  नेता जी के पास हैं (दोहे)


नेता जी के पास हैं, नए-नए किरदार।
चरण-कमल पड़ते जहाँ, होता पनियाढार।।


लेखपाल की चाल भी , करती क्या-क्या काम।
खेत किसी के हैं मगर, हुए किसी के नाम।।


भीतर-भीतर घुट रहा , विवश बना इंसान।
अन्तर आँसू की नदी,अधरों पर मुस्कान।।


सूखें अब अमराइयाँ ,फूलें -फलें बबूल।
मौसम भी अंधेर का,खूब उड़ाता धूल।।


आँगन में पायल नहीं,, ना पनघट पर गीत।
आज नहीं दिखता कहीं , वैसा सरस अतीत।।


तप्त समय की रेत पर,तड़प रही मन-मीन।
दया , प्रेम , विश्वास को ,कौन ले गया छीन।।


सुन्दर महलों से भला ,, मरुथल बार हज़ार्।
जहाँ किसी का मिल सके , सच्चा मन का प्यार।।


मन्दिर -मस्ज़िद एक हैं, ल्ड़वाते वे लोग।
जिनको वोटों की ललक,जिनको कुर्सी रोग।।


बनो सुमन सुरभित सदा ,सहज बिखेरो प्यार।
हँसी मिले हर अश्रु को ,महक उठे हर द्वार।।

१०
याद शहर में आ रहा, अपना भूला गाँव।
वह पनघट, चौपाल वह, वह बरगद की छाँव।।

११
इस जीवन की राह में,धूप बहुत, कम छाँव।
पाँवों में छाले पड़े, नज़र न आता गाँव।।

१२
पंथ न बोझिल हो कहीं, थकें न बढ़ते पाँव
इसी लिए तो ठहरते , हम गीतों के गाँव।।

१३
यों तो बहुतों से मिली, पीड़ा की सौगात।
मगर सहा जाता नहीं ,अपने से आघाता।।

१४
हमें जिन्होंने दुख दिए, उनके प्रति आभार।
तप कर दुख की आग में ,हमको मिला निखार।।
--
[ ‘धूप बहुत, कम छाँव’ से ]

८ जून २००९

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