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२६. १. २०१५-

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जब जब घर आता मैं अपने

 

जब जब घर आता मै अपने
दिखता बहुत उदास
चौखट करने लगती मेरी
सुधियों से परिहास

नीम निहारे मुझे एकटक
पूछे कई सवाल
क्योंकर मेरी याद न आती
इतने इतने साल
आये हो तो मत जाना अब
तुमसे है अरदास

देख मुझे बूढ़ी दीवारें
हो जाती हैँ दंग
राख दौड़कर पुरखों की भी
लग जाती है अंग
कुर्सी चलकर बाबू जी की
आ जाती है पास

अलमारी की सभी किताबें
करने लगतीं बात
अम्मा की सब मीठी बातें
कह जाती है रात
बाबा दादी और बुआ का
होता है आभास

बारादरी रसोई आँगन
बतियाते सब खूब
और बताते कैसे निकली
फर्श फोड़कर दूब
बैठ रुआँसा कहे ओ'सारा
यहीं करो अब वास

- धीरज श्रीवास्तव

 

इस सप्ताह

गीतों में-

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धीरज श्रीवास्तव

अंजुमन में-

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पूनम शुक्ला

छंदमुक्त में-

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शैली खत्री

दोहों में-

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शशि पाधा

पुनर्पाठ में-

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डॉ. संजीता वर्मा

पिछले सप्ताह
१९ जनवरी को संक्रांति विशेषांक में

गीतों में-

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टीकमचंद ढोडरिया

अंजुमन में-

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आशीष श्रीवास्तव

छंदमुक्त में-

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संजय आटेड़िया

छोटी कविताओं में-

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पुरुषोत्तम व्यास

पुनर्पाठ में-

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गिरीश शर्मा

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी