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जब जब घर
आता मैं अपने |
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जब जब घर आता मै अपने
दिखता बहुत उदास
चौखट करने लगती मेरी
सुधियों से परिहास
नीम निहारे मुझे एकटक
पूछे कई सवाल
क्योंकर मेरी याद न आती
इतने इतने साल
आये हो तो मत जाना अब
तुमसे है अरदास
देख मुझे बूढ़ी दीवारें
हो जाती हैँ दंग
राख दौड़कर पुरखों की भी
लग जाती है अंग
कुर्सी चलकर बाबू जी की
आ जाती है पास
अलमारी की सभी किताबें
करने लगतीं बात
अम्मा की सब मीठी बातें
कह जाती है रात
बाबा दादी और बुआ का
होता है आभास
बारादरी रसोई आँगन
बतियाते सब खूब
और बताते कैसे निकली
फर्श फोड़कर दूब
बैठ रुआँसा कहे ओ'सारा
यहीं करो अब वास
- धीरज श्रीवास्तव |
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इस सप्ताह
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
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पिछले सप्ताह
१९ जनवरी को
संक्रांति विशेषांक
में
गीतों में-
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