पत्र व्यवहार का पता

अभिव्यक्ति तुक-कोश

१. ५. २०१६

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धूप जिन्दगी

 

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इनके उनके सबके मन को
खलता रहता हूँ
हुई जेठ की धूप जिन्दगी
जलता रहता हूँ

सपनों में ही छुपकर मिलने
खुशियाँ मेरे घर आएँ
होंठ चूमती रोज निराशा
नयन मिलातीं आशाएँ

साँझ ढले, इस मन को मैं बस
छलता रहता हूँ

तुम बिन मरना है जी जीकर
पर मरने तक जीना है
पग पग पर विष मिले भले ही
हँसकर मुझको पीना है

चंद लकीरें लिए, हाथ बस
मलता रहता हूँ

भटक रहा हूँ जीवन पथ पर
खोज रहा हूँ रोटी मैं
काट रहा हूँ अपने तन पर
प्रियवर रोज चिकोटी मैं

बिना रुके मैं, बिना थके बस
चलता रहता हूँ

- धीरज श्रीवास्तव

इस पखवारे

गीतों में-

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धीरज श्रीवास्तव

अंजुमन में-

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धर्मेन्द्र कुमार सिंह सज्जन

छंदमुक्त में-

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सुशील कुमार

कुंडलिया में-

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कल्पना रामानी

पुनर्पाठ में-

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स्वयंप्रभा झा

पिछले पखवारे
१५ अप्रैल २०१६ के अंक में

गीतों में-
कृष्ण मुरारी पहारिया

अंजुमन में-
शंभुनाथ तिवारी

छंदमुक्त में-
असीमा भट्ट

हँसिकाओं में-
सरोजिनी प्रीतम

पुनर्पाठ में-
सावित्री शर्मा

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संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी