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अनुभूति में राज सक्सेना की रचनाएँ—

अंजुमन में—
एक डर अन्जान सा
नहीं करता जो दुश्मन भी
बाबू जी
हे प्रियतम तुमने वसंत में

हैरान कर देंगे

 

एक डर अन्जान सा

एक डर अन्जान सा, हर शख़्स के मन में बसा है।
चीख़ने पर भी, सज़ा-ए-मौत से बढ कर सज़ा है।

चुप रहो, सुनते रहो, चुपचाप सब सहते रहो,
देखना और बोलना, एक हुक्म से कुछ दिन मना है।

हर ‘दुखद घटना’ पे दुख, होता है इस नेतृत्व को,
भूल जाना दो दिनों में, इन की पहचानी अदा है।

इन उजालों का करें क्या, माँगते सत्ता का घर,
भाग्य में आवाम के बस, घोर-अंधियारा बदा है।

मुस्कुराने तक का तुम को हक नही, मातम करो,
आज ही सरकार के, दरबान का ‘कुत्ता’ मरा है।

बे-रोक सड़कों पर चले,’सरकार’ लेकर क़ाफ़िला,
इसलिए सड़कों पे कलसे,आपका चलना मना है।

जन-हितों पर फैसले, संसद में अब होते नहीं,
आमजन के ‘पर’ कतरने,सत्र अविरल चलरहा है।

खून कब, अब तो रगों में, दौड़ता है अश्रु जल,
‘राज’ जिसका खौलना, हर दौर में रहता मना है।

२७ जनवरी २०१४

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