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अपनी जगह से गिर कर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाखून" -
अन्वय करते थे किसी श्लोक का ऐसे
हमारे संस्कृत टीचर!
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियाँ
अपनी जगह पर!

जगह? जगह क्या होती है?
यह, वैसे, जान लिया था हमने
अपनी पहली कक्षा में ही!
याद था हमें एक-एक अक्षर
आरंभिक पाठों का-
"राम, पाठशाला जा!
राधा, खाना पका!
राम, आ बताशा खा!
राधा, झाडू लगा!
भैया अब सोएगा,
जा कर बिस्तर बिछा!
अहा, नया घर है!
राम, देख यह तेरा कमरा है!
'और मेरा?'
'ओ पगली,
लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं
उनका कोई घर नहीं होता!"

जिनका कोई घर नहीं होता-
उनकी होती है भला कौन-सी जगह?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर
औरत हो जाती है

कटे हुए नाखूनों,
कंघी में फँस कर बाहर आए केशों-सी
एकदम से बुहार दी जाने वाली?

घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग,
कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे!
छूटती गई जगहें

लेकिन कभी तो नेलकटर या कंघियों में
फँसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ!

परंपरा से छूट कर बस यह लगता है-
किसी बड़े क्लासिक से
पासकोर्स बीए के प्रश्नपत्र पर छिटकी
छोटी-सी पंक्ति हूँ -
चाहती नहीं लेकिन
कोई करने बैठे
मेरी व्याख्या सप्रसंग!

सारे संदर्भों के पार
मुश्किल से उड़ कर पहुँची हूँ,
ऐसे ही समझी-पढ़ी जाऊँ
जैसे तुकाराम का कोई
अधूरा अभंग!

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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