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आत्मन

हे आत्मन -
जानते हो,
क्या होती - आत्मा?
किसे कहते - परमात्मा?
रोज देखते तुम,
उगते, ढलते चाँद, सूरज
लहलहाती पवन
चंचल नदी, उत्तंग शिखर।
यह धरती, यह गगन
बीच में बस मैं और तुम।
कभी भटकते समरांगण,
कभी विचरते गहन सुगम वन।
कभी महसूस करते,
कभी स्पर्श - तो कभी मनन।
जो मैं कहता कभी मान लेते
तो कभी मानते कर गहन अध्ययन।
फिर, अब क्यों - मौन?
कहो आत्मन, क्या जाना क्या बूझा
क्यों सूनी-सूनी आँखें तुम्हारी,
मौन, शांत क्यों अब तुम्हारा मन?
सब कुछ शून्य- हे आत्मन
सब कुछ शून्य- बस शून्य
इसी से जात यह सब
इसी में सब विलीन।
जैसी अद्भुत परीभाषा इसकी
वैसा ही यह परम पावन।
बस शून्य सिर्फ शून्य
समझे हे आत्मन।

२८ अप्रैल २०१४

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