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अनुभूति में कामिनी कामायनी की रचनाएँ-

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बुद्ध की यात्रा
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बंदर बाँट

बडी खुश थी
रोटियों का डिब्बा लिए वे बिल्लियाँ
मगर फिर वही एगारह का अंक
हताश गुर्राई
एक दूसरे पर
इतने में आया कहीं से एक बंदर
मुद्दत के बाद
आया था यह मौका
भर पेट खाकर तृप्त को जाने का
आगे बढा मदद का पैगाम लिए
मगर वे न मानीं
सुन रखा था अपनी दादियों के किस्से
ताकती रही टुकुर टुकुर
कुछ भी नहीं आया था उनके हिस्से
तभी आई एक बंदरिया उछलते कूदते
देखा जाते अपने सजन को आँखें मूँदते
एक चालाकी उभरी उसके मन में
क्यों न अब राज चलाऊँ
इस वन में
बोली मुस्कुराकर
अरी ओ सहेलियाँ
आओ सुलझा दूँ तेरी सब पहेलियाँ
वो बंदर मेरा पति है बडा मक्कार
पर अब गया उसका अधिकार

शर्माने की क्या बात
अब तो महिलाओं का राज है
ला डिब्बा बाँट दे रोटियाँ
ढक्कन खोल कर एक पर
झपटी
गंध सोंधी सोंधी
उसको थी भा गई
और देखते ही देखते
सारी की सारी खा गई
वही बंदर बाँट देख बिल्लियाँ गुर्राईं
पंजा चला कर आपत्ति जताई
तू तो अपने पति से ज्यादा ही धूर्त है
बंदरिया हँसी
कभी मेरा साथी खाया था
आज मैं खा गई
समझो अपनी दक्षिणा पा गई
सत्ता में रहने पर
कैसा नर
कैसी मादा
जनता का माल
खाते हैं बुद्धिमान ही ज्यादा ।

२ जुलाई २०१२

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