अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में कमला निखुर्पा की रचनाएँ-

अच्छी हो तुम
जीवन बनाम घंटियाँ
धरती की पुकार
प्रकृति में खो जाएँ
प्रवासी का ग्रीष्मावकाश
 

  जीवन बनाम घंटियाँ

बेसुरी घंटी घड़ी की
बज उठी फिर से ट्रिन ट्रिन
छोड़ नींद के सुखद आगोश को
उठना है, जुटना है, खटना है,
दिन भर मुझे मशीन की तरह...

हुई भोर, मचा शोर
ममा मेरी ड्रेस, नहीं है प्रेस
जल्दी दो टिफिन, हो रही देर
भागती हूँ, दौड़ती हूँ, पूरे घर में
चकरघिन्नी की तरह...

फिर बजी घंटी की अनवरत धुन
टन टन टन, टन टन टन।
स्कूल है, प्रार्थना सभा है,
समाचार है, विचार है,
समूह गान, राष्ट्रगान सब है
बस नहीं है, इक पल का चैन
किसी विरहन की तरह...

घंटियों पर घंटियाँ बजती रहीं
छोटी घंटियाँ
लंबी घंटियाँ
हर घंटी के साथ वक्त गुज़रता रहा
शोर मचता रहा
किसी मेले की तरह...

मैम मेरी कॉपी चेक कर दो
मैम मुझे ये कविता समझा दो
मुझे फीस जमा करवानी है
मैडम आपको सर ने बुलाया है
इधर से उधर
यहाँ से वहाँ
चलती रही मैं चलती गई
मेले में भटकी किसी बच्ची की तरह...

हैरान मैं,
परेशान मैं
निपटाती काम को
पर वह ख़त्म होता ही नहीं।
पर वह वक्त देता ही नहीं।
दो घड़ी चैन से बैठने का
दो बातें करने का
बढ़ता जाता काम
द्रौपदी के चीर की तरह...

आखिर छुट्टी की घंटी घनघनाई
थके चेहरों पर फिर से रौनक आई
हुई भागमभाग, रेलमपेल
छूटती ट्रेन के मुसाफ़िरों की तरह...

बढ़ चले कदम, अपने अपने आशियाने की ओर
साथ लिए कुछ मीठी यादें
छुपाए कुछ कुछ कड़वी बातें
बोझिल तन-मन
आँखों में कई सपने
दूर बहुत दूर हैं अपने
किससे कहें कसक मन की
सब सिमटे हैं खोल में अपने
किसी कछुए की तरह...

तभी बज उठी घंटी टेलीफोन की
हुई अपनों से बातें कई
फिर भी रह गया
बहुत कुछ अनकहा...
अव्यक्त उदासी है
आज की पीड़ा है
कल की चिंता है
निढाल तन, हताश मन
नहीं सह पाता, घंटियों के निर्मम स्वर को
घंटी की आवाज़, लगती है हर बार
हथौड़े की चोट की तरह...
घंटी से बँधी ज़िंदगी
लगने लगी थी बोझ की तरह...

अचानक तभी...
हुई मस्जिद में अजान
दूर कहीं...मंदिर में बजी आरती की घंटियाँ
मुखरित-गुंजित हुई, भक्त जनों की स्वर लहरियाँ
पावन प्रदक्षिणा करते, प्रभु को पुकारते
भक्त जनों की पुकार गूँज उठी गगन में
कृष्ण के शखनाद की तरह...
अर्जुन के धनुष की टंकार की तरह...

दे रही थी संदेश मुझे
मानव ही नहीं भगवान भी बँधे है घंटियों के बंधन में
घंटियाँ मंदिर की हों या चर्च की
या जीवन की
चोट सहती हैं, फिर भी लय और ताल में बजती हैं
मधुर स्वर में कहती हैं
रुकना नहीं है
थकना नहीं है
सहते जाना है बस चलते जाना है
कबीर के करघे की तरह...
पंत की चींटी की तरह...
चलते जाना है
बस चलते जाना है
भोर के सूरज की तरह...

२२ जून २००९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter