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अनुभूति में मधुकर पांडेय की रचनाएँ

कविताओं में-
जीवन
मैं कौन हूँ
मौन

  मैं कौन हूँ

तुम कौन हो
यह प्रश्न मुझसे कोई बार-बार पूछता है
जब भी वह मुझे अकेला बैठे देखता है तो
फिर पूछता है कि तुम कौन हो

मैं इधर देखता हूँ उधर देखता हूँ
आगे देखता हूँ पीछे भी देखता हूँ
तुम्हें देखता हूँ सभी को देखता हूँ
पर कोई नज़र नहीं आता जो मुझसे
यह पूछता है कि तुम कौन हो कि तुम कौन हो

परेशान हो गया हूँ मैं हैरान हो गया हूँ मैं
अब खुद ही सोचने लगा हूँ कि कौन हूँ मैं
दर्पण में जाकर देखा तो मनुष्य दिखा मैं
खिड़की से बाहर झाँका तो मित्र दिखा मैं
यादों में कुछ झाँका तो पुत्र दिखा मैं
कुछ और थोड़ा झाँका तो भाई दिखा मैं
कुछ कदम आगे देखा तो पति दिखा मैं
थक बैठ के कभी देखा तो पिता दिखा मैं

संसारी सारे रिश्तों में दिखता ही रहा मैं
पर वह अब भी मुझसे पूछ रहा कि कौन हूँ मैं

मंदिर के पुजारी से पूछा कि कौन हूँ मैं
मस्ज़िद के मौलवी से पूछा कि कौन हूँ मैं
माथा नवाया गुरुद्धारे पे पूछा कि कौन हूँ मैं
ओ गिरिजा के पादरी तू तो बता कि कौन हूँ मैं
ओ ज़मी ओर आकाश अब तुम ही बता दो कि कौन हूँ मैं
दौड़ते ढूँढ़ते भागते अब थक-सा गया हूँ मैं
खुद को जानने की दौड़ में अब टूट गया हूँ मैं
पहचान खुद की जानने में कहीं खो-सा गया हूँ मैं

करने दूर थकान को एक वृक्ष के नीचे
कब मेरी आँख लग गई पता ही न चला
छाया में पेड़ की सो गया गहरी नींद में
पीड़ा तनाव और थकान जब होने लगी थी कम
चलती तेज साँसें की गति जब होने लगी थी कम
विचारों का उग्र प्रवाह भी बस अब रहा था थम
तभी कान में एक आवाज़ आई बहुत थक गए हो तुम
मैंने कहा कि हाँ दर-दर बहुत भटका हूँ मैं
ये जानने को मैं कि कौन हूँ मैं कौन हूँ मैं
वो फिर से मुझसे पूछेगा कि कौन हूँ मैं
क्या उसे बतलाऊँगा मैं कि कौन हूँ मैं
मुल्लाओं पादरियों पण्डितो से पूछा
चारों इन दिशाओं से पूछा नदियों की धाराओं से पूछा
डूबते उगते सूरज से पूछा पूरब से पश्चिम से पूछा
अब तो बहुत ही थक गया हूँ मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ मैं

कानों में एक मधुर आवाज़-सी आई क्यों दु:खी होते हो भाई
अपने को चाहा तुमने जानना इसमें हताश फिर कैसा होना
अरे तुम तो हो एक सच्चा सोना
सबने तुम्हारी अलग-अलग पहचान बताई किसी ने बेटा तो किसी ने भाई
अज्ञानी क्या ज्ञान सिखावै जो जितना जाने उतना ही तो बोले

अब ध्यान लगा के सुनले बंदे तेरा सच्चा स्वरूप है क्या
न तू शरीर न तू मरीर न तू राजा न तू रंक
न तू आदि न तू अन्त
इस मायावी संसार के आगे
एक और भी विराट है तू जिसका है रंग
तू तो है मेरा ही अंग तुझमें है मेरा ही रंग
मै तो तेरे अन्दर ही बैठा पूछ रहा था कबसे
पर तू पागल इस दुनिया में भागा
जल थल पर्वत जंगल मे दौड़ा
लेकिन मुझसे कभी न मिलना चाहा
जब भी मैं आवाज़ लगाता तेरा
तेरा मन तुझे दूर भगाता

पर अपने को ले अब जान कि तू है एक अपार ब्रह्म
तू तो है अमृत का पुत्र तू है परम ब्रह्म का अमृत तत्व
कर्म किए जा ईश्वरत्व के ध्यान दिए जा मानवता पे
सब जीवों में उसको ही देखो जो तुझमें है ब्रह्मत्व
तुझमें ही है मानत्व एवं यही एकमात्र है दैवत्व
इस दुर्लभ मानव जीवन का बस
यही एक है सत्व यही है एक तत्व
तुझमें ही है मानत्व तुझमें ही है ब्रह्मत्व।

अप्रैल २००८

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