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अनुभूति में प्रो. महावीर सरन जैन की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
चिंतन और मैं
संवेदना और मैं

  चिन्तन और मैं

जब होते हो,
मन में रह रहकर
पलने वाला कम्पन
सिगरेट धुएँ की भाँति-
सुलगता है।
जलता नहीं।
जीरो बॉल्ट के बल्ब की
मद्धिम रोशनी की भाँति-
कोठरी के अनेक खुरदुरे चिह्नों को,
धुँधला देता है;
ढाँक लेता है।
होलिका दहन की

तेज़ रोशनी की भाँति-
अतीत की परम्परा से बने
अन्तर्जगत के गह्वरों को-
कौंधाता नहीं।
मन के पट भिड़ जाते हैं।
महानगरों के पड़ौसियों की भाँति-
बन्द दरवाज़े के सामने होकर
मैं,
अपने को,
कनखियों से निहार भर पाता हूँ।
नयनों में चित्र नहीं बनते,
कानों में राग नहीं बजते,
जड़ता, मरघट-सी शान्ति,
अजीब, निगूढ़, काले वलयों में-
भावों की रेखायें आबद्ध हो जाती हैं।
इन्द्रियेत्तर बोध के मोह में,

बर्फ़ीली श्वेतता की आभा में,
अहसास होता है -
मेरा 'मैं' जीने लगा है।
इन्द्रियों की शिथिलता,
अन्तर की निष्क्रियता,
जड़ता की योगिनी,
लगता है -
मूलाधार पर कुंडली मारी हुई प्रज्ञा
फन उठा रही है।
चिन्तन का स्फीत्कार साँप
अन्न से आनन्द की ओर
दौड़ रहा है।
अब,
सब,
नि:शेष हो गया है।
निर्मल,
असीम,
मेरा 'मैं' बचा है।
घुमड़ता नीलापन,
लालिमा-सा पगलाकर,
फैलता चला जाता है
दिग-दिगन्त।
मेरे 'मैं' में-
असीम के कण-कण,
प्रकाशित से होते लगते हैं।
मगर,
उसी मैं
सबके सब
तिरोहित से हो जाते हैं।

१६ मार्च २००९

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