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अनुभूति में डॉ. प्रेम जनमेजय की रचनाएँ -

हास्य-व्यंग्य में-
चमचा
चौराहे पर गांधी

संकलन में-
फगवा के रंग

 

  चमचा

थाली से छोटा होता है चमचा
डोंगे से छोटा होता है चमचा
कटोरी से भी छोटा है चमचा
पर साहब की थाली में पड़ा इतराता
बहुत बड़ा होता है चमचा।

साहब को ठेके के चावल खिलाता है चमचा
साहब को कमीशन का हलवा खिलाता है चमचा
तन्वंगी भिंडी का स्वाद चखाता है चमचा
शाही ठाठ से पनीर खिलाता है चमचा

बहुत त्यागी होता है चमचा
साहब का भरता पेट
खुद खाली पेट रहता है चमचा
साहब के मुँह में आ जाए कंकर अगर
हँसकर झूठन उठाता है चमचा

खुशी से नहीं फूला समाता है चमचा
जब साहब के हाथों में होता है चमचा
जब साहब के ओठों को छूता है चमचा
बौने नजर आते हैं सब
साहब हो जाता है, साहब का चमचा

साहब के साहब की पार्टी में
छोटा बड़ा सब तरह का होता है चमचा।
जगमगाते विदेशी बर्तनों के बीच
टेबलपर चाँदी का सजता है चमचा।
छोटे मोटे दोस्तों की पार्टी के बीच
स्टील का चलता है चमचा
जान पर खेलने वाले मूर्ख सेवकों को
मिलता है प्लास्टिक का चमचा

मैं तो हाथ से खा लूँगा साहब बोला चमचा
चमचे को नसीब नहीं होता है चमचा
साहब के कच्चे कानों में कुछ फुसफुसाता है चमचा
पर निंदा का रस पिलाता है चमचा
सावन का अंधा हो जाता है साहब
कुछ भी नजर नहीं आता
नजर आता है साहब को बस साहब का चमचा

घर में अचानक टपक पड़े साहब
फूला नहीं समाता है चमचा
सारा घर बन जाता है चमचे का चमचा
मेरे साहब आज मेरे घर आए
टेलिफोन पर ताजा समाचार पढ़कर
चमचों को सुनाता है चमचा

चमचमाती दुनिया में प्यारे
हर कोई किसी न किसी का चमचा
कोई अपनी पत्नी का चमचा
कोई दूसरे बीवी का चमचा
कोई साहब का चमचा, कोई साहिबा का चमचा।

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