अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में रमेश देवमणि की रचनाएँ

 

 

सात छोटी कविताएँ

1-अपनी ज़िंदगी

आदमी के पास
अपनी ज़िंदगी कब तक होती है
क्या जब तक रोशनी की खोज होती है?
हम अपने घर में है या बाहर पता नही है
अँधेरों की आदत क्यों नहीं होती है?

अगर सोचा जाए तो ज़िंदगी कभी आदत लगती है
मौसम बदलते रहते हैं
पर पूरे हम नहीं बदलते
शायद हमारे मन मे अपनी ज़िंदगी
जीने की पुरानी आदत बनी रहती है।

2-क़ैद

कभी-कभी क़ैद लगती है ये ज़िंदगी,
इस धरती पर क़ैद,
इस अंबर की क़ैद,
हवा भी जीने देती है क़ैद कर-कर,
पानी पीने की उम्र क़ैद,
रिश्तों-नातों की क़ैद,
बीते पल और आजकल की क़ैद
भूख, भय, कामना, पीड़ाओं की क़ैद
क़ैद ही क़ैद है पल-पल ज़िंदगी
फिर भी क्यों रहती है तमन्ना जीने की?

3-हम

हम कभी समझ नहीं पाते अपने आपको क्योंकि
हम लगे रहते हैं दूसरों को समझने में
बचपन से सिखाया जाता है
और
बनाया जाता है पालतू कुत्ते जैसा
जो सिर्फ़
मालिक की ही भाषा समझकर
वैसे ही जीता है
और
परंपरागत
हम अपनी गुलामी को दूसरों पर ठोक देते हैं
यह सिलसिला सदियों से चल रहा है हमारे जीवन में।
अब इसे रोकना ही होगा
आनेवाली पीढ़ियों को बचाना होगा
आरंभ हम ही से करना होगा।

4-मन के भीतर

आज तक मैं बहार ही देखता आया हूँ
मुझे यह ही सिखाया गया है सब बहार ही है।
इसलिए मेरे अंदर समंदर है या आकाश
आजतक पता ही नहीं चला,
मैं सिर्फ़ सोचता हूँ अपने सिवा सबकुछ
यह ही मुझे सिखाया गया है
और
सिखाया जा रहा है आजतक।
ज़िंदगी की दास्ताँ पूरी होती जा रही है
पल-पल
मैं एक समस्या बना जा रहा हूँ अपने आपकी।
अगर हो ईश्वर तो भी
या
ना हो फिर भी
कुछ नही फ़र्क पड़ता मुझे भी।
मुझे चाहिए अपनी सही पहचान
हक़ीक़त में यह सब क्यों हो रहा है
हमारे ही साथ-साथ?

5-ग़ुलाम

जब अपनी इच्छानुसार हो जाता है
तो
हम बहुत खुश हो जाता हूँ
जब ऐसा नहीं होता
तब हमें अच्छा नही लगता
मतलब हमारा खुश होना
या
नाराज़ होना दूसरों की इच्छा पर निर्भर है
हक़ीक़त में हम गुलाम है दूसरों की मर्जी‍ के।

6-कल

सभी भाषाओं की
सभी शब्दों की
अपनी-अपनी अलग पहचान होती है।
मैं गुजराती हूँ
मेरी मातृभाषा गुजराती में भी कल परसों के लिए
अलग शब्द हैं
कल के लिए गई काल
परसों के लिए आवतीकाल
इन कल के भीतर
हम आज को भूल चुके हैं
आज कभी होती नहीं
हम सिर्फ़

कल में ही जीते हैं ज़िंदगी।


7-घर

घर पहुँचना ज़रूरी है
शरीर को रहने को कोई मुकाम चाहिए
वक्त बड़ी बेरहमी से चला जाता है
रिश्ते बदलकर।
मैं फिर भी घर जाता हूँ
तब
मुझे घर
और
मरघट मे कोई फ़र्क नज़र नहीं आता।

9 अप्रैल 2007

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter