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अनुभूति में शोभा महेन्द्रू की रचनाएँ

एक अहसास
जीवन डगर
मेरी परछाईँ
हे कृष्

 

जीवन डगर

जीवन डगर के बीचो-बीच
भीड़ में खड़ी देख रही हूँ --
आते-जाते लोग-
दौड़ते वाहन
कानों को फोड़ते भोंपू
पता नहीं ये सब
कहाँ भागे जा रहे हैं ?
हर कोई दूसरे को
पीछे छोड़
आगे बढ़ जाना चाहता है
सबको साथ लेकर चलना
कोई नहीं चाहता है
आगे बढ़ना है बस
किसी भी कीमत पर
किसी को रौंद कर
किसी को धकेल कर
किसी को पेल कर
हर कोई बस
आगे बढ़ जाता है
जीवन की डगर पर
भीड़ में खड़ी अचानक
अकेली हो जाती हूँ
कहीं कोई अपना
करीब नहीं पाती हूँ
हर रिश्ता इन वाहनों की तरह
दूर होने लगता है
मुझे पीछे धकेल कर
आगे निकल जाता है
और दिल में फिर से
एक अकेलापन
घिर आता है
जीवन की डगर पर अचानक
इतनी आवाज़ों के बीच
अपनी ही आवाज़
गुम हो जाती है
कानों में वाहनों के
चीखते-डराते हॉर्न
गूँजने लगते हैं
प्रेम की ममता की
आवाज़ें कहीं गुम
हो जाती हैं
मैं दौड़-दौड़ कर
हर एक को पुकारती हूँ
किन्तु मेरी आवाज़
कंठ तक ही रुक जाती है
लाख कोशिश के बाद भी
बाहर नहीं आती है
जीवन डगर पर-
अचानक कोई
बहुत तेज़ी से आता है
और मुझे कुचल कर
चला जाता है
मैं घायल खून से लथपथ
वहीं गिर जाती हूँ
किन्तु
ये बहता रक्त-
ये कुचली देह
किसी को दिखाई नही देती
जीवन की डगर में
मेरी आत्मा क्षत-विक्षत है
और मैं आज भी आशावान हूँ
मुझे लगता है
कोई अवश्य आएगा
मेरे घावों को
सहलाने वाला
मुझे राह से
उठाने वाला
जीवन की डगर में
अतीत को दोहराती हूँ
खुद एक सड़क
बन जाती हूँ मुझे दिखने लगते हैं
आते जाते अनेक रिश्ते
जिन्होंने पल दो पल के लिए
मुझे आबाद किया
आशा की किरणें बिखेरीं
किन्तु बत्ती हरी होते ही
वे सब बिखर जाते हैं
कुछ पल बाद नए वाहन
इस सड़क पर आ जाते हैं
फिर से आँखों में
रौशनी कौंधती हे
फिर से मैं बाँहें फैला कर
सबको गले लगाती हूँ
और---
अपनी इस दौलत पर
फूली नहीं समाती हूँ
किन्तु अचानक बत्ती
फिर हरी हो जाती है
जीवन की डगर
फिर सूनी हो जाती है
ये सूनापन --
मुझे सालने लगता है
किन्तु तभी --
एक दृष्टि मिल जाती है
जीवन चलने का नाम है
रुकना या रोकना
जीवन का अपमान है
आगे और आगे
बढ़ते जाओ
कभी किसी पर
दोष मत लगाओ
क्योंकि---
जीवन की डगर पर
लोग आते ही रहेंगे
नित नए रंगों से
जीवन सजाते ही रहेंगे
दिल में न कभी
रखना कशिश
आगे बढ़ने की
देना आशीष

24 अक्तूबर 2007

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