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अनुभूति में सुधांशु उपाध्याय की रचनाएँ

गीतों में-
औरत खुलती है
काशी की गलिया
खुसरो नहीं गुज़रती रैन
दरी बिछाकर बैठे
नींद में जंगल
पोरस पड़ा घायल
बात से आगे

हुसैन के घोड़े

 

दरी बिछाकर बैठें

आओ छत पर
पानी छिड़कें
दरी बिछा कर बैठें
चाँद झर रहा और चाँद से
पीठ सटा कर बैठें।

छोटे-छोटे पल भी
दुनिया बड़ी बनाते हैं
वैसे तो हालात
हमें बस घड़ी बनाते हैं
कुछ पत्तों का हिलना देखें
चेहरों पर चाँदनी मलें और
बल्ब बुझा कर बैठें।

बहुत पास से ट्रेन गुज़रती
हाथ हिलाती है
भूले-छूटे रिश्तों को वह
याद दिलाती है
किसी जगह का सपना देखें
पुल का धीमें कंपना देखें
इस छत को ही नदी समझ लें
नदी जगा कर बैठें।

खिड़की का वह हिलता परदा
राज़ बताता है
कैसे घर के भीतर कोई
आग छिपाता है
देखें थोड़ा पार घरों के
खोल तोड़ते हुए डरों के
चाँदी के ये फूल उड़ रहे
फूल सजाकर बैठें।

9 जून 2007

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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