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अनुभूति में सुनील कुमार श्रीवास्तव की रचनाएँ -

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स्कूल जाते बच्चे का प्रेम-गीत

 

स्कूल जाते बच्चे का प्रेम-गीत

मैम ! क्या आपको पता है
कि आपकी आँखें कितनी बड़ी-बड़ी हैं ?
झांकती है इनसे बेहद अपनी-सी नर्म रोशनी
और खिलखिलाना इनका गूंजता है नाद की तरह
सृष्टि के आर-पार !

इस नाद के विलंबित राग में बीतता है समय,
उषा और गोधूली पहनते हैं
दिन और रात के परिधान,
सर्दियाँ गर्मियों में लय होती हैं
पुराने गीत के अवसान की तरह,
आपकी आँखों में बिछे हुए विस्तीर्ण आँचल पर
मैं नाप सकता हूँ अपने दिगंत के और-छोर !

आप जब पूछती हैं मुझसे वे सवाल जो किताबों में हैं
या कि ज़िंदगी के चारों ओर
विधि-निषेध की किताबी सीमाओं में गुम,
उतर आता है आपका वजूद
सिर्फ आपकी आँखों के जल में चाँद की तरह !

आप होती हैं अपनी आँखों में
हिरण्यमय जाल के अंदर से बाहर उतरती हुई
केवल रोशनी की एक कौंध,
शब्दों से परे छूती हैं बोलती-अनबोलती दुनिया की
वे सारी कोंपलें,
जो उगाती हैं ज़िंदगी के नए सब्जे
और सृष्टि के नए फूल !

इस रोशनी की आंच में हिलता है
एक अलग हिरण्यमय संसार !
मैम, ये किताबें मेरे वजूद पर पत्थर की तरह पडी हैं !
मुझे इस संसार में उन कोंपलों को छूते हुए आना है !

मुझे बेहद दर लगता है, मैम !
आपकी चौड़ी आँखों की
घेरनेवाली उजास से बाहर जाते हुए,
बाहर बेपनाह कलौंस और धूल से सड़कें हो रही हैं स्याह,
कहीं न कहीं इस वक़्त कोई दुर्दांत नीली बस
रौंद रही है किसी मनुष्य की पवित्र देह,
घर के दरवाजों-खिड़कियों पर
किसी सनसनीखेज परछाईं की आहट से रात-बेरात
उचट जाती है सपनों के आकाश में फ़ैली हुई मीठी नींद !

मेरे पिता और उनसे भी पहले के लोग
बुनना चाहते थे खूबसूरती की जो तमाम कड़ियाँ
वे हमारी ज़िंदगी के चारों ओर
अस्त-व्यस्त होती जा रही हैं !

मैम, मुझे संवारनी है अपनी एक नई दुनिया,
उगाने हैं नए सब्जे और फूल फिर से,
इस ध्वंस होती दुनिया से परे
आपकी गहरी आँखों के आँचल में
किरण की किसी शाख पर बनेगा मेरा पहला नीड़,
मैम, मैं बनूंगा इस नई दुनिया का पहला मनु,
आपको विश्वास नहीं होता, मैम !
सौरी मैम, मुझे पता नहीं है कि क्या होता है प्रेम !

४ अक्तूबर २०१०

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