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अनुभूति में सुशील आज़ाद की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
नहीं लौट पाई वो
जिंदगी
दर्द
साँझ का सूरज
सूरज की बैसाखियाँ

 

साँझ का सूरज

साँझ का सूरज लेकर
मैं !
डूब जाना चाहता हूँ।
घर के आँगन में खेलूँगा तो
तो
बढ जायेगा बच्चों का दर्द
‘एक अनार सौ बीमार’’
उनकी अभिलाषाएँ जग जायेंगी,
एक उछलती गेंद को पकड़ने की
लगी है होड़।

बच्चे नहीं जानते होड़ अथवा दौड़ने का अर्थ
मगर स्वप्न की तरह भंग होती
उनकी इच्छा को
तार-तार नहीं होने देगा कोई बच्चा।

हर बार की पराजय से
चिंतन ओर दृढ होने की बजाय
उनमें जन्म लेती है हीन भावना,
जिससे
उनके प्रतिद्वंद्वी आतंकी बन सकते है।

आजकल,
इसलिए सूरज का डूबना
किसी एक का नहीं
सबका दर्द बन सकता है।
और सभी भटकने लगते है, अंधकार की गुफाओं में।
जहाँ अँधेरा स्वयं पुकारता है
मूक आवाज में
आँखे देख नहीं पाती,
केवल अनुभव करती है काली परतों को
और हाँ !
तब,
एक हाथ से दूसरे हाथ को पहचानने का
अभिनय करते है लोग
इसलिए,
साँझ का सूरज लेकर
मैं,
डूब जाना चाहता हूँ--- सदा के लिए।

३ अक्तूबर २०११

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