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अनुभूति में स्वदेश भारती की
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जीवन वन
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जीवन-वन

मेरे पास जब बगीचा नहीं था
बड़ी साध होती थी
कि मैं भी एक बगीचा सजाऊँ
नए नए पेड़-पौधे, लतावलियाँ
फूल-वृक्ष लगाऊँ
फिर जब एक बगीचा बना लिया
और उसमें पेड़ बड़े होकर
छाया, फूल, फल देने लगे
तो लगा कि पृथ्वी का आनन्द
मैंने भी अपनी फटी झोली में पा लिया
और अपना आनन्द स्फुरण
आत्मीयों को बाँट दिया
फिर देखा कई पेड़ों में
मधुमखियों ने आकर छत्ते बना लिए
उस मधु को भी उन सबको दिया
जिन्हें चाहिए था मधु-स्वाद-सुख
फिर वसन्त आया दबे पाँव
और अपनी पहचान छोड़
तेजी से वापस चला गया
दुःखों की भीषण गर्मी में बगीचे की
हरीतिमा पीले पत्ते बनकर
हवा के हाथों नीचे गिरने लगे
उस समय मैं अकेला था
कोई भी मेरा या बगीचे का
सूखा-अन्तरण देखने, महसूस करने
नहीं आया
न मेरे आत्मीय या सगे
मेरे पास आज भी बगीचा है दुखों का
किन्तु उसे समेट लिया मैंने
हृदय के एकान्त-प्रान्तर में।

२ दिसंबर २०१३

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