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तोतापंखी
चिकनाई!
हरे नए पत्तों की नरम
तोतापंखी चिकनाई।
याद दिलाती है तुम्हारे खतों में
बिखरे हर्फों की गीली नरम लुनाई।
सहेज छोड़े हैं वे सारे खत
कई बार मन में आया, फाड़ डालूँ इन्हें
अपनी ही जिंदगी में,
कौन समझेगा मेरे बाद इन खतों का मोल?
लेकिन, जब भी जीती हूँ अपने पलों को
दुबारा, तिवारा, चौबारा
खतों के हर्फ दर- हर्फ बन जाते हैं
घुँघरू की घनी छम-छम!
होली के लाल,पीले, हरे अबीर,
मकर संक्रांति के काले-सफेद तिल के लड्डू,
मेष संक्रांति के जौ और चने के सत्तू
जूड शीतल की सहिजन की तरकारी और
पुदीने संग पीसी गई कच्चे आम की चटनी,
खुद से बनाए कच्ची मिट्टी के अनगढ़ दिए
जलाने के लिए, नवरात्रि के सभी नौ दिन
दीवाली की झाड़-सफाई, रंगाई-पुताई,
छठ के नहा-खा से लेके खरना,
साँझ का और भोरका अर्घ्य
आँवले के पेड़ के नीचे
पकाया-खाया-अक्षय नवमी का भोजन
देवोष्ठान एकादशी को उठाते देव-गण-
कार्तिक मास का स्नान और
उद्यापन कार्तिक स्नान का
विसर्जन सामा-चकेबा का,
कार्तिक पूर्णिमा का मेला!
सारी दुनिया, सारी संस्कृति,
सारा जीवन छुपा है इन्हीं
इन खतों की धुन्धलाती इबारतें
हैं समय की साक्षी,
नष्ट करना इनको,
ज्यों फाड़ डालना सभी पुरानी तस्वीरें!
कर लेना खुदकुशी ।
आज,
खतों के तिलिस्म
गुम गए हैं मोबाइल मेसेज और
इंटरनेट के जाल में
तो क्या मैं भी खो जाने दूँ?
एक अजायबघर है
तुम्हारे खतों का पुलिंदा
जिसे थामे धड़क रही हैं
मेरे हृदय की अनगिनत शिराएँ!
और जी रही हैं खतों के हर्फ- दर- हर्फ! ३१ मार्च २०१४ |