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                अनुभूति में 
                अर्चना पंडा की रचनाएँ— 
                हास्य व्यंग्य में— 
                अमरीका 
                कोई भारत से जब आए 
                नौकरी की टोकरी 
                वैलेंटाइन डे  
                शादी अच्छे घरों में हो 
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 अमरीका  
मुसकुराया मन देख सोफ़े कुर्सी मेज़ को, 
भांति भांति के उपकरणों को, नई नवेली सेज को, 
हुए नहीं थे चार महीने भारत को छोड़े हुए, 
घर से कोसों दूर, विदेशी सभ्यता ओढ़े हुए, 
उन दिनों भी मन के अन्दर कैसी वो आशाएँ थीं ? 
उमंगों की तरंगों की सतरंगी भाषाएँ थीं। 
 
आए यहाँ तो रंगीली ये दुनिया हमको भा गई, 
ज्ञान विज्ञान की इतनी प्रगति अपने दिल पर छा गई, 
लगे ठूँसने घर मैं अपने सामानों के भर ठेले, 
लगने लगे ठहाकों के मेरे घर पर भी मेले, 
अब तो इस धरती पर, इस हवा में तन रमने लगा, 
देख विदेशी चकाचौंध अपना भी मन जमने लगा, 
 
हो सकता है, अगली घर की यात्रा मन को न भाए, 
पड़े रहें तब भी विदेशी चकाचौंध के ये साए, 
सम्भव हैं जाएँ हम भूल, निज देश की वह बंदगी, 
धर्म भूलें कर्म भूलें, नज़र आए बस गंदगी, 
पर दिल के किसी कोने में अब भी एक आस है, 
घर भरा है किंतु मन में कमी का एहसास है, 
 
नहीं है तो बस नहीं है थपकियों का वो आँचल, 
खाने की मेज़ पे अपनों का वो कोलाहल, 
वो नाचने की धुन की मस्ती, गीतों का मधुर झंकार, 
वो प्यार वो तकरार, बच्चों सो जाओ की वो पुकार 
 
अब तो अपने तेवर की करती है मिजाज़पुर्सियाँ, 
ये कार ये टीवी ये मेज़ और ये कुर्सियाँ, 
 
उन लोगों के लिए ये संदेश मेरे पास है, 
जिनके दिलों में भी परदेस की ही आस है 
 
जब आना इस ओर तो थोड़ी माँ की खुशबू ले आना, 
बाँध सको तो गली मुहल्लों की आवाज़ें ले आना, 
संस्कृति इतनी लाना की आखिरी वक्त तक साथ रहे, 
हो पाये तो मुट्ठी भर तुम देश प्रेम भी ले आना, 
 
मानों मेरी बात तभी तुम्हारा यहाँ दिल खिलेगा, 
क्योंकि इनमें से तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा, 
कहीं नहीं मिलेगा 
१० नवंबर २००८ 
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