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कौन कहता है
ग़म गुसारों की बात
दरमियाँ यों न फ़ासिले होते
नाज़बरदारियाँ नहीं होतीं
मेरे हाथों की लकीरों में

वो एक चाँद-सा चेहरा

अंजुमन में-
अपनी नज़र से
किस तरह
जो भी मिलता है
प्यार के काबिल नहीं
मेरे वजूद में
रंगों की बौछार

 

जो भी मिलता है

जो भी मिलता है वो लगता है मुझे हारा हुआ
वक्त के हाथों या फिर हालात का मारा हुआ

कौन सुनता है किसी का दर्द इस माहौल में
हर किसी की आँख का पानी है अब खारा हुआ

शोरोगुल में दब के रह जाती हैं आवाज़ें सभी
दम घुटा है सोज़ का और साज़ नाकारा हुआ

दो बदन इक जान थे उड़ते रहे आकाश में
आए जब धरती पे दोनों उनका बँटवारा हुआ

रात भर जागा किए बिरहा की काली रात में
''चाँद'' आई नींद गहरी जब था उजियारा हुआ

16 अक्तूबर 2007

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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