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अनुभूति में डॉ. हरदीप संधु की रचनाएँ-

नए हाइकु-
त्रिंजण

छंदमुक्त में-
गधा कौन
मिट्टी का घरौंदा
मेरे गाँव की फिरनी
रब न मिला

हाइकु कविता

हाइकु में-
सात हाइकु

 

त्रिंजण

त्रिंजण शब्द पंजाब की लोक संस्कृति से जुड़ा शब्द है। आज से तीन-चार दशक पहले अविवाहित लड़कियाँ मिलकर चर्खा काता करती थीं। सामूहिक रूप से चर्खा कातने वाली लड़कियों की टोली को त्रिंजण कहा जाता था। यह संसार भी एक त्रिंजण ही है, जहाँ हम सब मिलकर एक दूसरे के सहयोग से अपना जीवन व्यतीत करने के लिए आए हैं। हमारा मन भावों का त्रिंजण है जो दिन-रात भावों के रेशे काता करता है और हम अपने अनुभवों को शब्दों की माला में पिरोकर अभिव्यक्त करते हैं। आज मैं इसी जग त्रिंजण तथा मन त्रिंजण की बात अपने हाइकुओं में कहने जा रही हूँ। आशा है आपको यह प्रयास अच्छा लगेगा।


मन त्रिंजण
जीवन भाव काते
बने हाइकु


मन त्रिंजण
सदियों से बंजारा
घूमे आवारा


मन त्रिंजण
खुदा करे निवास
काहे का डर


मन त्रिंजण
ज्यों प्रभु लौ जगाए
शांति हो जाए


मन त्रिंजण
निचोड़े जो चाँदनी
पी नयनों से


ये मुलाकातें
मन त्रिंजण मेले
संदली रातें


त्रिंजण मन
लगा भावों का मेला
नहीं अकेला


भाग्य से हम
देखने आए यहाँ
जग -त्रिंजण

कात रे मन
जगत त्रिंजण में
मोह का धागा
१०
यह जीवन
जगत त्रिंजण का
खेल तमाशा

११
बाँट रे ज्ञान
संसार त्रिंजण में
कर तू दान

१२
जग त्रिंजण
नहीं जागीर तेरी
घड़ी का डेरा

१३
जग त्रिंजण
ये बाग़ वो जिसका
रब है माली

१४
जग त्रिंजण
अनजान नगरी
कहाँ ठिकाना

१५.
जग त्रिंजण
गिनती के हैं साँस
बेगाना धन

२७ फरवरी २०१२

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