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उलझन
ढाल
धूप का ढलता साया
फिर बदल गया

छंदमुक्त में-
और बच्चे खेलते रहे
क्या उसे हक़ था
खारदार झाड़ियाँ
दो खुली आँखें
ये कैसा ख़ौफ़ है

 

ढाल

मुँदी आँखों से देखती हूँ
एक ढाल
करती है जो रक्षा
जंग के मैदान में.

ढाल।
ढँक लेती है मेरा वुजूद
तूफ़ानी मौसम में।
ख़रीदी है यह ढाल
समाज में फैली बीमारियों से,
जज़बात के बाज़ार से।

जब जब टूटती हूं
हाथ बढ़ा देती है
गरम, मज़बूत हाथ
अक़ीदत से भरा।

डर से मुक्ति दिलवा दी
आगे बढ़ कर
थाम लिया उसका हाथ
तलवार भी है और ढाल भी

हाँ वही है मेरे ज़ख़्मों की दवा।

१८ अक्तूबर २०१० 

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