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निज सहज रूप में संपत हो
जानकी-प्राण
बोले - "आया न समझ में यह दैवी विधान;
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर, -
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,
जो तेज:पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार-
हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार -
शत-शुद्धि-बोध -
सूक्ष्मतिसूक्ष्म मन का विवेक,
जिनमें है क्षात्र-धर्म का घृत पूर्णाभिषेक,
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,
वे शर हो गए आज रण में श्रीहत,
खण्डित!
देखा है महाशक्ति रावण को लिये अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक;
हत मन्त्र-पूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों-ज्यों,
झक-झक झलकती वहिन वामा के दृग
त्यों-त्यों;
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गए
हस्त,
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"
कह हुए भानु-कुल-भूषण
वहाँ मौन क्षण भर,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान, "रघुवर,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति
करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत
प्राणों से प्राणों पर,
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त;
शक्ति की करे मौलिक कल्पना; करो पूजन,
छोड़ दो समर जब तक न सिद्ध हो, रघुनन्दन!
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक
मध्य मार्ग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक,
मैं, भल्ल सैन्य; हैं वाम-पार्श्व में हनुमान,
नल, नील और छोटे कपिगण - उनके प्रधान;
सुग्रीव, विभीषण, अन्य यूथपति यथासमय
आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"
खिल गयी सभा। "उत्तम
निश्चय यह, भल्लनाथ!"
कह दिया ऋक्ष को मान राम ने झुका माथ।
हो गए ध्यान में लीन पुन: करते
विचार,
देखते सकल - तन पुलकित होता बार-बार।
कुछ समय अनन्तर
इन्दीवर-निदित लोचन
खुल गए, रहा निष्पलक भाव में
मज्जित मन,
बोले आवेग-रहित स्वर में विश्वास-स्थित -
"मात:, दशभुजा, विश्व-ज्योति; मैं हूँ
आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है महिषासुर खल मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मात: समझा इंगित;
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"
कुछ समय तक स्तब्ध हो
रहे राम छवि में निमग्न,
फिर खोले पलक-कमल-ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न;
हैं देख रहे मन्त्री,
सेनापति, वीरासन
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।
बोले भावस्थ चन्द्र-मुख निन्दित रामचन्द्र
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर-मेघमन्द्र -
"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द-विन्दु;
गरजता वरण-प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु,
दशदिक समस्त हैं हस्त,
और देखो ऊपर,
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर;
लख महाभाव-मंगल पद-तल
धँस रहा गर्व -
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"
फिर मधुर दृष्टि से
प्रिय कपि को खींचते हुए
बोले प्रियतर स्वर में अन्तर सींचते हुए -
"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,
कम-से-कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,
जाओ देवीदह, उष:काल होते सत्वर
तोड़ो; लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"
अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,
प्रभु-पद रज सिर धर चले हर्ष भर हनूमान।
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगत : नभ के ललाट पर प्रथमकिरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा-ज्योति-हिरण;
हैं नहीं शरासन आज
हस्त-तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निबिड़-जटा-दृढ़ मुकुट-वन्ध;
सुन पड़ता सिंहनाद रण-कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार;
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,
मन करते मनन नामों के गुणग्राम;
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन से गहनतर होने लगा समाराधन।
क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,
चक्र से चक्र मन बढ़ता
गया ऊर्ध्व निरलस,
कर-जप पूरा कर एक चढ़ाते इन्दीवर
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समासित मन,
प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर;
दो दिन नि:स्पन्द एक आसन पर रहे राम,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध;
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध;
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्राय: करने को हुआ दुर्ग जो सहस्त्रार,
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।
यह अन्तिम जप, ध्यान
में देखते चरण-युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल;
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल;
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल;
देखा, वहा रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय
आसन छोड़ा असिद्धि, भर गए
नयन-द्वय; -
"धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका;
वह एक और मन रहा राम का जो न थका;
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा
विद्युत-गति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।
"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
"कहती थीं माता मुझे सदा राजीव-नयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात एक नयन।"
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त लक-लक करता वह महाफलक;
ले अस्त्र थाम कर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया वेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय -
"साधु, साधु, साधक धीर,
धर्म-धन-धान्य राम!"
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्कर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर,
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध-अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व को श्री लज्जित
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रण-रंग-राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द-स्वर-वन्दन कर।
"होगी जय, होगी जय, हे
पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई-लीन। |