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अनुभूति में मधु शुक्ला की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
अनछुआ ही रहा
जाने कहाँ छिप गयी वो
पानी की जंग
मेरे इर्दगिर्द मेरे आसपास
यादों की चील

  अनछुआ ही रहा

सिर्फ तन नहीं थी मैं
तन के भीतर एक मन भी था
तुम्हारी आशाओं और आकांक्षाओं से
भरा हुआ मन
चाहत की अनन्त कल्पनाओं से भरा मन
जो अनछुआ ही रहा
तुम्हारे तमाम स्पर्शो के बाद भी।

मेरे अन्तस में उमगती प्यास की नदी
तलाशती रही तुम्हारी आँखों में
सम्भावनाओं का सागर
टटोलती रही दो बूँद नमी
उलीची हुई सम्वेदनाओं के सूखे समन्दर में।

तुम्हारी उपेक्षाओं की सतह पर तड़पती
इच्छाओं की ये कोमल मछलियाँ
तोड़ती रहीं दम एक-एक कर
और बाँधे हुए, अपनी खाली मुट्ठियों में
तुम्हारे होने का महज भ्रम
देखती रही होते हुये ओझल
अपनी आँखों के दायरों से
तुम्हारी तृष्णा के मृग को
लिप्साओं के मरुस्थलों में।

गुजर जाना चाहती थी मैं
तुम्हारें भीतर से
एक समूची सदी की तरह
पर पलों के पंख लगाये हुये तुम
मँडराते रहे
मन और प्राणों से रहित इन मृत देहों पर
किसी गिद्ध की तरह।

१ जून २०२२

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