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अनुभूति में शिवबहादुर सिंह भदौरिया की रचनाएँ-

नई रचनाओं में-
एक सवाल कि जीवन क्या है
कहा कि सबकी पीड़ा गाओ
कुहासे की शिलाएँ
जिंदगी कठिन तेवर तेरे
दुर्दिन महराज
पत्थर समय
पाँवों में वृन्दावन बाँधे
बैठ लें कुछ देर आओ
यही सिलसिला है
वटवृक्ष पारदर्शी

गीतों में-
इंद्रधनुष यादों ने ताने
जीकर देख लिया
टेढ़ी चाल जमाने की
नदी का बहना मुझमें हो
पुरवा जो डोल गई

मुक्तक में-
सब कुछ वैसे ही

  एक सवाल कि जीवन क्या है

एक सवाल
कि जीवन क्या है ?
पूछा गया नदी के तटसे।

तट ने कहा कि मेरे ऊपर
भाँति-भाँति के जीवन चलते
निष्क्रिय खामोशी में हम तो
केवल चर्चाओं को सुनते

जीवन में रहकर
जीवन से
पूरी तरह गए हैं कट से।

सन्त महन्त मनीषी आते
भक्त भजनिए निर्गुण गाते
पानी का बुलबुला जिन्दगी
एक यही निष्कर्ष सुनाते

औरों का सच
सुनते-सुनते
अपने कान गए हैं फट से।

तट कुछ और कहे कि अचानक
पवन चला नदिया लहरायी
एक लहर थी ढ़ीठ गजब की
ताकत भर तट से टकरायी

ओंठों पर
प्रतिवाद भंगिमा
जल की जीभ खोल दी झट से।

रुकने पर लगता कि नहीं हूँ
गोकि देह में श्वास-श्वसन है
चलते रहते तो लगता है
मैं हूँ और यही जीवन है

मेरा सत्य
बता दो जाकर
हर आँगन से, हर चौखट से। 

१९ अगस्त २०१३

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