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                   अनुभूति में
					विश्वनाथ प्रसाद 
					तिवारी की रचनाएँ- 
					 
					छंदमुक्त में- 
					कैसे टूटेगा यह सन्नाटा 
					शुरुआत 
					सलाह 
					सीमाएँ 
					सुख  | 
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                  सुख 
					    
					हंसों से उड़े जा रहे हैं वे 
					किरणों की तरह पर्वत पार 
					 
					नींद में मिले थे वे 
					लाल लाल आँचल में  
					भूख में दिखे थे थाली के कोने 
					एक जाड़े की रात अलाव के पास 
					आये थे दबे पाँव  
					जिजीविषा में चमके थे  
					एक बार क्षण भर के लिये 
					 
					कहाँ गये वे 
					मैने घाटियों में पुकारा 
					बाहें फैलाईं शिखरों की ओर  
					वे नहीं आये 
					 
					उरोजों, नितंबों  
					सिक्कों, प्रशस्तियों  
					की ओर देखा ललचाई आँखों से 
					वे नहीं आए 
					 
					दौड़ा दूसरे को ठेलते 
					छीनते, झपटते 
					जैसे मेरे ईश्वर दौड़े थे त्रेता में  
					कंचनमृग के पीछे 
					 
					क्या जो नहीं आते  
					उन्हीं को कहते हैं सुख 
					 
					१५ जून २००१ 
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