अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में अर्चना श्रीवास्तव की रचनाएँ-

स्वीकारोक्ति
प्रकृति के संग- (एक)
प्रकृति के संग- (दो)
हकीकत

  स्वीकारोक्ति

हाँ! मोटी हो गई है मेरी खाल
बेहद सख़्त और रूखी
नहीं होता है इस पर असर
किसी शब्द की ललकार का
किसी एहसास के चित्कार का
या फिर हार का
आँखों पर टँका था
नीली लहरों का समंदर
श्वेत नर्म बादलों का चुहल
साँसों में भरा था
हरे लहलहाते
खेतों की मधुर तान
अंतर में बसा था
झिलमिलाते जुगनुओं के
नित्य नये उत्सव
दमकते लाल-पिले फूलों की
मखमली बारिश
मगर मैंने
छुटती दम तक पाया था
सत्य का चेहरा
कई तहों में दबा हुआ
जैसे शराफों की खामोशी में
कायरों की फौज
मतलबी की आँधी में
जज़्बातों की मौत
इत्मिनान की एक चाल पर
हज़ार जालसाज़ों का पहरा
जो अपनी आवाज़ नहीं जानते
वो नारों से जुड़ गए
जो अपनी आवाज़ ढूँढ़ते थे
वो मुलायम इश्तिहारों में डूब गए
अपने हथियार जो व्यवस्था के विरुद्ध थे
वो साँसों की लय
लहू के रंग
आसमा के कोने
और धरती के एक टुकड़े की
महज़ ढाल बन गए।

११ मई २००९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter