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अनुभूति में मोहित कटारिया की रचनाएँ-

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ज्योति पर्व– दीप जलाने वाले हैं

 

प्यास

इक प्यास है
जो बुझती नहीं है,
जलती रहती है मेरे अंदर कहीं
और कतरा–कतरा जलाती रहती है मुझे,
सहर से शब तक
अपने होश–ओ–हवास में जलता हूँ मैं,
और शब भर सुलगती रहती है ये
राख में दबी चिंगारी की तरह,
जो राख छंटते ही,
पौ फटते ही,
फिर से जलने लगती है
और जलाने लगती है मुझे कतरा–कतरा।

चंद आखिरी कतरे ही बचे हैं अब तो,
बस गिनती भर के!
और मैं रौशन होता जा रहा हूँ
इस प्यास की रौशनी से!!

९ नवंबर २००३

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