अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में नम्रता शुक्ला 'क्रांति' की
रचनाएँ -

वो राहें
तुम फूलों सी कोमल हो
हाँ मुझे है प्रतीक्षा

 

तुम फूलों सी कोमल हो

तुम फूलों-सी कोमल हो,
और 'कविता' सी हो अर्थमयी,
'मदिरा' सी मदभरी और तुम
बिल्कुल 'मुझ' सी, मैत्रेयी।

कब तक तुमको पलकों पर रक्खूँ,
कितना दूँ अपनत्व तुम्हें,
अब तक था स्थान रिक्त जो,
शीर्षासन दे दिया तुम्हें।

अमिट कांति ये जो भी छू ले
मन मंदिर के हाथों से,
उसका जीवन तो सुंदर हो,
स्वर्णपरी की रातों से।

अपना आकाश न सीमित करना,
डरना असफलता से न कभी,
उड़ना तुम उन्मुक्त गगन में,
सपने लेकर आँखों में।

उड़ती प्यारी लगती हो तुम,
स्वविचारों के पंख लगा,
नतमस्तक हो जाऊँ मैं,
इतना तुममें विश्वास दिखा।

अपने अंतर्मन से देखो,
अपने मन के नयनों को,
सपने कितने सजते हैं
इन प्यारी प्यारी आँखों में।

१६ मार्च २००९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter